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न्यायविदों द्वारा प्रशासकों की खिंचाई: प्रभात उप्रेती


ऊँट पहाड़ के नीचे आ ही जाता है।
जनता पुलिस, डॉक्टर और प्रशासकों से वैसे ही परेशान रहती है। इसलिए जब कभी कोई न्यायविद इनकी क्लास लेता है तो जनता गदगद हो जाती है। जैसे कभी पुलिस वालों की पिटाई सेना के जवान कर देते हैं तो लोग प्रसन्न होते हैं।

एक बार आर्मी का एक जवान अस्पताल गया। उसकी पत्नी गर्भवती थी। जवान ने डॉक्टर से ऑपरेशन करने के लिए कहा तो डॉक्टर ने पाँच सौ रुपये माँगे। जवान ने कहा – मेरे पास केवल दो सौ रुपये हैं। इस पर डॉक्टर ने ताना मारा – दो सौ रुपये मुझसे लेकर कफन का इंतज़ाम कर लो। इस पर जवान ने अपनी बेल्ट खोलकर डॉक्टर की धुनाई कर दी। तब अस्पताल वालों ने हड़ताल कर दी। पुलिस ने उस फौजी को थाने ले जाकर पीटा। जब यह खबर फौजियों तक पहुँची तो कुछ जवान आए और पुलिस वालों की धुनाई कर दी। जनता ने भी फौजी का ही साथ दिया।

यह क्रम बताता है कि आक्रोश सदियों से सिस्टम से दबी जनता के भीतर पलता है और मौका मिलते ही फूट पड़ता है।

संघीय व्यवस्था में शक्ति के वितरण के कारण न्यायपालिका की शक्ति विशेष हो जाती है। संविधान की व्याख्या करने की शक्ति रखने के साथ-साथ जब वह स्थायी कार्यपालिका को कभी-कभार हड़काती है, तो जनता प्रसन्न होती है। क्योंकि कार्यपालिका के प्रशासकों के अहंकार से जनता हमेशा दबती रहती है। वर्तमान में जब न्यायाधीशों की टिप्पणियाँ लाइव होती हैं तो जनता को और भी आनंद आता है।

हाल ही के पंचायत घपलों और हिंसा में जिस तरह उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने प्रशासकों की क्लास ली, वह एक उदाहरण है। एक न्यायाधीश ने तो कोर्ट में इंस्पेक्टर से कहा – “तुम वर्दी धारण करने लायक नहीं हो।” एक आईएएस को फटकारते हुए कहा – “आप कैसे कम्पटीशन में निकले?”

हमारा सिस्टम ही आम जनता के खिलाफ जाता है। वर्तमान पंचायत चुनाव में हुआ अपहरण देवभूमि के लिए कितना घातक है, यह सोचने योग्य है। उसकी गरिमा ही धूमिल हो गई है। इस कांड में जब जिला अध्यक्ष की उम्मीदवार ने याचिका दायर की तो हाईकोर्ट ने व्यंग्यात्मक अंदाज़ में पुलिस अधिकारी से जवाब-तलब किया।

नैनीताल जैसे टूरिस्ट प्लेस में यह हंगामा और हादसा क्या संदेश देता है? चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति जी. नरेंन्द्र ने इस घटना को अंजाम देने वालों को “गैंग” कहा। उन्होंने पूछा – “इस गैंग के आने की जानकारी आपको इंटेलिजेंस से मिली थी या नहीं?”

एसएसपी बोले – “यहाँ कोई गैंग नहीं था।”
चीफ जस्टिस ने पूछा – “कोई गैंग नहीं था तो आपका क्या मतलब है? क्या हम अंधे हैं? आपकी राय में इसे क्या कहते हैं – क्या यह जमवाड़ा था?”

एसएसपी – “सर, मुझे लगा लोग वहाँ तलवारें लिए थे। लेकिन…”
चीफ जस्टिस – “साफ दिखाई दे रहा है कि हर कोई रेनकोट के अंदर तलवारें लिए है।”
एसएसपी – “हमने इन लोगों की शिनाख्त कर ली है।”
चीफ जस्टिस जी. नरेंन्द्र – “तो आपने क्या किया? उन्हें बुके भेंट किए?”

यह सारी वार्ता बताती है कि माननीय न्यायाधीश व्यंग्य की भाषा भी जानते हैं और गहरी चोट करना भी।

जो भी हो, अपराध की दुनिया में उत्तराखंड का यह हादसा देवभूमि के लिए एक राक्षसी छाया है।

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