उजड़ा पर्यटन
ये है ज़िंदगी का रेला-पेला, किसी ने खेला, किसी ने झेला
शक्ति के इस खेल में फूलों की साज़िश है, कांटे बदनाम हैं।
महफ़िल सूनी है, जाम खाली हाथ हैं।
उत्तराखंड की राजनीति, उसकी कार्यशैली पर्यटन को लेकर जिस तरह से बाज़ारवादी प्रवृत्ति बनाती है, वह उसके अस्तित्व के लिए खतरनाक है। वह बाज़ारवादी दिखती है, पर वह बाज़ारवाद की प्रवृत्ति को भी पूरा नहीं करती।
उत्तराखंड की उत्तरकाशी की विपदा में जिस तरह NDRF, ITBP, सेना, बॉर्डर संगठन, वायुसेना ने काम किया है, वह क़ाबिले-तारीफ़ है। मुख्यमंत्री धामी जी ने जिस तरह खुद जाकर जायज़ा लिया है, उसने उनकी छवि को निखारा है। स्पॉट पर जाकर मुख्यमंत्री का जायज़ा लेना एक उपलब्धि है। हमारे जांबाज़ सैनिकों और बचाव दल ने बेहतरीन काम किया है और कर रहे हैं।
पर सवाल यह है कि इस तरह की आपदाओं की जड़ क्या है?
उत्तराखंड का आधार टूरिज़्म है, पर क्या टूरिज़्म के मूल को हम लागू कर पाए हैं? पूरे उत्तराखंड में दूरस्थ क्षेत्रों में आपको ‘मैगी प्वाइंट’ दिख जाएंगे, पर अपना उत्तराखंड के पास ऐसा कोई उत्पाद नहीं है जो वह पर्यटक को बेच सके। वही हल्द्वानी से सारा माल घूमकर वापस पहाड़ों की मंडियों में आता है।
हमने सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर लाखों पेड़ काट दिए हैं — ये धरती टिकेगी किस पर! बरसात में यहां के टूरिस्ट प्लेस या धाम संभलते नहीं, पर हम उन्हें सालभर चालू रख रहे हैं। जाड़े में भी लोग जा रहे हैं।
बस, हर जगह अथाह भीड़ है। भूटान की तरह यहां नियंत्रित पर्यटन नहीं है, तो धामों में दर्शन के लिए दादागिरी है। वीआईपीज़ की भरमार है। वैष्णो देवी या दक्षिण के तीर्थों जैसा प्रबंधन नहीं है। एक तरह की कारोबारी लूट है।
सारे पर्यटन स्थल, गाड़-गधेरों को हमने गंदगी से भर दिया है। पॉलीथिन से सारा उत्तराखंड पटा पड़ा है। तुंगनाथ, बियर की बोतलों से भरा पड़ा है। गधेरे गायब हो रहे हैं, तो पुराने चाल-खाल (जलस्रोत) जो धरती को थामे रखते थे, वो भी गायब हो गए हैं। एक पुराने पर्यटक कह रहे थे कि हरसिल का सेब प्रसिद्ध था, पर अब उसे चमकाने के लिए उस पर मोम की परत लगाई जाती है। बद्री-केदार का जो पहले चरित्र था, वह अब कहां!
मसूरी-नैनीताल सीज़न में रहने लायक नहीं हैं। आवश्यकता से अधिक उनकी धारक क्षमता लांघ दी गई है। सीज़न में नैनीताल जाना मुश्किल हो जाता है। वीकेंड पर तो वह नरक हो जाता है — जाम ही जाम। कैंची धाम के कारण कितना जाम होता है! उसे सही अंदाज़ में बनाने की कोई योजना अभी तक नहीं बन पाई। हाल में वहां के लिए एक सड़क बनाई जा रही है, जहां आठ हज़ार पेड़ कटेंगे। रोड बनाते समय पेड़ों को सुरक्षित रखने की तकनीक का प्रयोग नहीं किया जाता, जैसे चंडीगढ़ में होता है।
श्रद्धा का भी तो कोई वैज्ञानिक आधार होना चाहिए।
राज्य बनने के बाद नए संभावित टूरिस्ट प्लेस — जैसे ग्वालदम, नागनाथ पोखरी, पिथौरागढ़, चंपावत, गोपेश्वर — को बेलगाम निर्माण से बर्बाद कर दिया गया है। जागेश्वर धाम की खूबसूरती — देवदार के पेड़ — काटने का कार्यक्रम चल रहा था। अल्मोड़ा के भी यही हाल हैं। जोशीमठ तो गहन संकट में है। योजनाओं ने तो उत्तराखंड की जड़ें ही खोद दी हैं। सारा पहाड़ बिका पड़ा है।
हिमाचल के हाल भी ठीक नहीं हैं। हर बरसात में वह ढह रहा है। एक बार एक साक्षात्कार में उत्तराखंड और हिमाचल के जंगलों की बात हुई, तो कहा गया कि उत्तराखंड के जंगल अगर ‘कैंची’ से काटे गए हैं, तो हिमाचल के जंगल ‘उस्तरे’ से काटे गए हैं। सेब इतना लगा दिया गया है कि जंगल साफ हो लिए।
सारे हिमालय की बैंड बजा दी है योजनाकारों ने।
जब इस तरह का धंधा हो, अवैध और बेतरतीब निर्माण हो, तो इस तरह की आपदाएं आएंगी ही। कितना भी NDRF, सेना, ITBP लगा लो!
हमें सिरे से एक व्यवस्थित पर्यटन की ज़रूरत है — अंधाधुंध निर्माण वाला टूरिज़्म नहीं। उसके पास अपने स्रोत होने चाहिए। हरसिल का सेब या जोशीमठ की कपासी कहां गई? मुनस्यारी की राजमा कहां गई? चैखटिया का सेब कहां गया? रामगढ़ का सेब गायब है।
तमिलनाडु आज अपने उत्पादों से अरबों कमा रहा है, पर उत्तराखंड के पुराने उत्पाद — आड़ू, पुलम, सेब — खत्म हो रहे हैं। पहले यहां जोशीमठ, रामगढ़, चैबटिया का सेब बहुत मीठा होता था, पर अब वह गायब है। बेरीनाग की चाय सारे विश्व में सप्लाई होती थी। गरमपानी की सब्ज़ी का बोलबाला आसाम तक था। पर सारे उत्पाद धड़ाम हो रहे हैं। उत्पाद में हमारा पतन हो रहा है।
क्या ही अच्छा होता अगर यहां का भंगजीरा, भांग की खेती को कानूनी बना देते — उससे तेल और तरह-तरह की दवाइयां बनतीं। एक समय तो भूतपूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इसे ‘भांग प्रदेश’ बनाने की बात तक कही थी। पर कहां — यहां तो उत्पाद में वही सब पिज़्ज़ा आदि आ रहा है।
पर्यटन के नए, स्वस्थ रूपों को आगे लाना आवश्यक है। यहां तो काफल तक बिहार का आदमी बेच रहा है, और भवन निर्माण भी वही पुरानी तकनीक से कर रहा है। भूकंप-संवेदनशील इलाका होने से यहां निर्माण नई तकनीक से होना चाहिए था।
ये मूलभूत सवाल हैं — पर्यटन और पर्यावरण, दोनों पहाड़ की मूलभूत आवश्यकता हैं। दोनों को विरोधाभासी हालात में डालकर हम उत्तराखंड के उर्वरक पर्यटन उद्योग को खो देंगे।
नैनीताल में, भवाली में फ़्लैट्स — पहले हमने कभी नहीं सुने थे, अब हैं। खोद-खोदकर गड़बड़ कर दी गई है। क्वारब रोज़ का सरदर्द है। जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना चाहिए, वह कहीं नहीं है। बिक गया पहाड़।
रानीखेत में भी कैंटोनमेंट एरिया खत्म करने की बात चल रही है। वह हो गया, तो रानीखेत भी बिक जाएगा।
आपदा हो नहीं रही है — हम उसे इनवाइट कर रहे हैं। अत्यधिक पर्यटन, धारक क्षमता के सामान्य नियम को खत्म कर रहा है। सावधान!
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