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रामणा लाल धान एवं बौराणी धान का हुआ राष्ट्रीय पंजीकरण




वीपीकेएएस व लोक चेतना मंच का रहा सहयोग

अल्मोड़ा। पारंपरिक कृषक प्रजाति रामणा लाल धान व बौराणी धान का राष्ट्रीय पंजीकरण हो गया है। दोनों प्रजातियों को भारत सरकार के पौधा किस्म एवं कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण नई दिल्ली द्वारा कृषक किस्म के रूप में 4 अगस्त 2025 को औपचारिक संरक्षण प्रदान किया गया है। इस प्रक्रिया में वीपीकेएएस व लोक चेतना मंच की अहम भूमिका रही है

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रामणा लाल धान और बौराणी धान की विशेषताः इस प्रजाति के धान लगभग 80-85 दिनों में फूलने और 110-115 दिनों में पकने वाली पारम्परिक कृषक प्रजातियां है। दोनों किस्में वर्षा आधारित खेती एवं उर्वरतायुक्त भूमि के अनुकूल हैं तथा ब्लास्ट रोग के प्रति मध्यम प्रतिरोधिता प्रदर्शित करती हैं। बौराणी धान का दाना सफेद रंग का अपेक्षाकृत बड़ा (लंबाई 6.24 मि.मी. चैड़ाई 2.22 मि.मी 100 दाना वजन 2.49 ग्राम) होता है जबकि रामना लाल धान का दाना हल्के लालध्भूरे रंग का (लंबाई 5.84 मिमी चैड़ाई 2.38 मिमी 100 दाना वजन 2.6 ग्राम) है।वीपीकेएएस व लोक चेतना मंच की पहल- धान की इन दोनों प्रजातियों को गत  4 अगस्त 2025 को औपचारिक संरक्षण प्रदान किया गया है। यह प्रजाति ग्राम गल्ली-बस्यूरा निवासी भूपेंद्र जोशी ने  गैरसरकारी संस्था लोक चेतना मंच रानीखेत के माध्यम से प्रस्तुत की गई थी।इसमें भाकृअनुप-विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा के निदेशक डॉ लक्ष्मीकांत जी के नेतृत्व में वरिष्ठ वैज्ञानिक अनुराधा भारतीय लोक चेतना मंच के जोगेंद्र बिष्ट व पंकज चौहान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस पंजीकरण से संबंधित कृषकों को न केवल इस प्रजाति के उत्पादन एवं विपणन के विशेषाधिकार प्राप्त होंगे, बल्कि यदि इस किस्म का उपयोग भविष्य में किसी नई किस्म के विकास में किया जाता है, तो उन्हें लाभ साझेदारी और क्षतिपूर्ति का भी वैधानिक अधिकार प्राप्त होगा। इनका पंजीकरण न केवल पारंपरिक कृषि धरोहर के संरक्षण की दिशा में एक प्रेरक कदम है, बल्कि यह पर्वतीय कृषकों के ज्ञान, परिश्रम एवं अधिकारों को भी सम्मानित करता है।

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उत्तराखंड की कृषि विविधता की पहचान हैं ये प्रजातियां- धान की दोनों प्रजातियां उत्तराखंड की कृषि विविधता के साथ ही यहां की सांस्कृतिक पहचान भी हैं। यही नहीं स्थानीय लोगों की आजीविका के साथ ही पोषण और प्राकृतिक अनुकूलन की परंपरा का आधार भी है। उत्तराखंड धान की अनेक पारंपरिक प्रजातिया हैं जोकि कृषकों की ओर से पीढ़ियों से संरक्षित की जाती रही हैं। स्थानीय जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप ढली हुई यह प्रजातियां  पोषण, स्वाद और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आधुनिक कृषि प्रणालियों और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण ये प्रजातियां धीरे-धीरे लुप्त होने के कगार पर हैं। ऐसे समय में इन परंपरागत प्रजातियों का वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण कानूनी पंजीकरण एवं कृषकों के अधिकारों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है।

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