एक जंगल है…
’एक जंगल है तेरी आंखों में, जहां राह भूल जाता हूं।’ दुष्यंत कुमार की यह कविता पछाड़ खा रही है। अब आंखों में क्या, जमीन में ही जंगल नहीं हैं तो आंखों में कहां होंगे?
सारी दुनिया में होमो सेपियन्स ने जंगल काट-काटकर रेगिस्तान बना दिए। चाहे वह अमेज़न के जंगल हों या उत्तराखंड के। धरती का श्रृंगार जंगल जब मरे, तब हम पले। खेती, खनिज – इन्हीं की देन हैं।
जंगल ऐसे साफ किए गए जैसे जन्म-जन्म की अदावत हो, जबकि जंगलात का एक आद्य वचन है – “बदौलत खाओ, दौलत मत खाओ।”
पहले मैं जंगल में बहुत घूमता था। एक बार बंदूक लेकर साथी के साथ शिकार के लिए गया। तब जाना – जंगल की चुप्पी क्या होती है! एक पत्ता खड़कना भी गुनाह। ऐसे चलते जैसे किसी आतंकवादी की तलाश कर रहे हों।
रिवाजान पेड़ बहुत लगाए। किसी पेड़ को गले लगाने में जो शांति मिलती है, उसका जवाब नहीं। जंगल का अदब ही ग़ज़ब।
उत्तराखंड में एक जमाने में चिपको आंदोलन जनता के हक-हकूक और अंगू के पेड़ को लेकर हुआ। वह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पर्यावरण आंदोलन के नाम से प्राप्त कर गया। एक्टिविस्ट आनंद सिंह जी ने इसके परिणाम की जो व्याख्या की, वह सर्वश्रेष्ठ थी – “चिपको अंतर्राष्ट्रीय ख्याति तो प्राप्त कर गया, पर वह अंगू का पेड़ न दे पाया, जिसके लिए यह लड़ा गया।” सब कुछ समेट लिए गए, आनंद सिंह चिपको को।
अंग्रेजों ने जंगल काटे भी, संवारे भी। विल्सन ने टेहरी के जंगलों को काट-काटकर बागान कर उस धरती को नंगा कर दिया, फिर भी जंगल यहां रहे। हरसिल के सेब – क्या लाल गुलाल मीठे हैं – उसी के लगाए हैं।
सारी रेलवे लाइनें पहाड़ के जंगलों की देन हैं।
पर अंग्रेजों ने गांव वालों को जंगल का हक उसी तरह दिया जिस तरह यहां के राजाओं ने। वन विभाग बनाया, जिसका गांव वालों से हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा। गांववालों को उनके हक-हकूक न देकर वे जंगल की आग बुझाने में दिलचस्पी नहीं लेने लगे। पहले अंग्रेज हक भी देते थे और यह भी आगाह करते थे कि अगर तुम्हारे जंगल में आग लगी तो तुम्हारे हक-हकूक खत्म कर दिए जाएंगे।
वहां अधिकार था तो जिम्मेदारी भी थी।
उत्तराखंडी गांव वालों ने पंचायती वन व्यवस्था का अच्छा प्रबंधन किया। देव वन बनाए।
उत्तराखंड आंदोलनों में वन आंदोलन सबसे ज्यादा सक्रिय रहे। क्योंकि वह उनकी जिंदगी की ज़रूरत थे। खेत की मेंड़ में ही चमखड़ी, खड़ीक, कीम, क्विराल, दाड़िम के पेड़ लगाए जाते थे।
आजादी से पहले उत्तराखंड के पहले अखबार अल्मोड़ा अखबार ने याचना की थी –
“हमें सिर्फ लकड़ी और घास चाहिए। हम सोना नहीं मांगते, सिर्फ लकड़ी और घर। जिसके लिए शहर छोड़ा, जंगलों के पास बसे, जंगली जानवरों से दोस्ती की और असभ्य ग्रामीण कहलाए। आपकी मालगुजारी दिन-रात चौगुनी बढ़े, पर प्रजा का भी ध्यान रखना चाहिए।”
चिपको के बाद, गैस आने के बाद, पलायन के बाद उत्तराखंड के वन बढ़े।
एक बार मैं पिथौरागढ़ पैदल गांव में गया। एक ग्रामीण ने कहा – “पहले कभी गांव की तरफ चलते जाओ तो गांव दिखते थे। अब पलायन होने से जंगल बढ़ गए, तो गांव दिखते ही नहीं।”
वन विभाग की जंगल को लेकर खूब लानत-मलामत हुई। आग ने, बाघ ने जंगल की दहशत बढ़ाई। महाभारत से लिया सैनिकों के लिए शब्द “अग्निवीर” – जंगल में जो लगाते।
वन विभाग में भ्रष्टाचार के दो किस्म के सिस्टम हैं – साइफन सिस्टम और चेन सिस्टम। एक में माल ऊपर से नीचे जाता है, एक सीधा। फिर बजट नहीं है, स्टाफ नहीं है, अधिकारी ज्यादा हैं, कर्मचारी कम हैं।
एक बार जंगल में आग को लेकर मैंने एक कर्मचारी से सवाल किया। उसने कहा – “मैं बारह साल से डेलीवेज़ेज़ वाला हूं। मेरे जूते मैंने अपने पैसों से लिए हैं। आग बुझाने के लिए वही पुराना झापा (हालांकि कारगर) है। क्या करें!”
जंगल में आग लगने पर डीएम और डीएफओ के साथ मीटिंग हुई। मैं भी शामिल था। उस समय नेपाल में भी जंगल में आग लगी। मीटिंग का नतीजा यही निकला – हेलीकॉप्टर मंगाया जाए और एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार हो। चाय-समोसा खाकर परिणाम भी गटक लिया गया।
उत्तराखंड में ही क्या, पूरे देश में जंगल की संपत्ति पर पलने वाली जनजातियों का शोषण हुआ। पूंजीपतियों को उनके जंगल सौंप दिए गए।
जंगल को लेकर कितनी ही दर्द और शोषण की गाथाएं हैं – क्या-क्या कहें, क्या न कहें!
जंगल साफ तो पहाड़ हांफ। खलनायक जेवीसी पहाड़ की मिट्टी को जड़ से उखाड़कर नदी में डाल रही है।
कैसे बचें पहाड़! भूस्खलन, बादल फटना – रोना ही रोना है।
जड़ी-बूटी का नाश हो रहा है। नंदा राज जात में इतना टूरिस्ट आता है, इतने टेंट लगते हैं, इतने कदम चलते हैं कि फोना-फ्लोरा का नाश हो जाता है, जिसकी भरपाई में पूरे बारह साल लगते हैं। यह बुद्धि का नाश है।
जंगल, उसके जीव, उसके निवासी – सब आतंक में हैं। क्या कीजिएगा!
पेड़ लगाना फैशन है, हैवी है। बहुत-सी संस्थाएं उग आई हैं। ’पर्यावरण’ एक फैशन वाला शब्द बन गया है। चुनाव के घोषणापत्रों में किसी राजनीतिक दल में पर्यावरण का जिक्र नहीं आता।
“एक पेड़ मां के नाम योजना” 5 जून 2024 को मोदी के नाम से शुरू की गई। इसके तहत एक लाख पेड़ पूरे भारत में और एक हजार पेड़ उत्तराखंड में लगाने की योजना है।
ओह यह क्या! जंगल तो सरकार काटे और जनता लगाए!
यह ’पापमोचन’ जैसी योजना लग रही है।
हैदराबाद के पास 400 एकड़ में तेलंगाना के कंचा गाचीबावली जंगल को जनता के विरोध के बावजूद रात में ही काटना शुरू कर दिया गया था। जयपुर के बीच जंगलों में 100 एकड़ भूमि पर ढाई हजार पेड़ काटे गए। इन सब जगहों में मॉल और फिटनेस पार्क बनने हैं। क्या तमाशा है!
जम के काटो, फिर पश्चाताप के तहत यों ही कुछ पेड़ लगा दो। कौन से पेड़ लगाओ? किसी भूगोल के तहत लगाओ? नहीं। बस मोरपंखी के पेड़ लगा दो। वाह जी, धंधा!
प्लास्टिक कचरा, पेड़ की परवाह – न जनता को है, न प्रशासन को, न राजनीतिज्ञ को।
पूरा हंगामा है – चमचमाती चौड़ी सड़क, विकास विनाश के अंदाज में।
पेड़ बचाकर भी सड़कें बनाई जा सकती हैं, पर लूट के गेम में किसे परवाह है पॉलिथीन प्रदूषण या पेड़ों की।
जंगल में जब दंगल हो तो मंगल कैसा!
कैसे गायें लोक कंट्री गीत –
“I want to live like animals, Careless and free like animals, I want to live, I want to run through the jungle, The wind in my hair…” (Savage Garden)
जंगल तो गाली बना दी – “जंगली कहीं का।”
पर असल में जंगल नहीं, शहर डराते हैं।
अहमद मुश्ताक कहते हैं –
“अरे क्यों डर रहे हो जंगल से, ये कोई आदमी की बस्ती है।”
आज सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है – इस बरसात में जो तबाही पहाड़ों में, यथा हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब, जम्मू-कश्मीर में हुई, उसका कारण पेड़ कटना है।
पानी के साथ बहकर आ रहे लट्ठ यह बता रहे हैं कि अवैध कटान ऊपर जंगल में हुआ है।
बरसात में हम तो सालों से यही देखते आए हैं – जब नदी उफान में होती है तो उसमें बहते लट्ठों को देखकर लगता है कि सारा जंगल काटकर बगान से बहाया जा रहा है।
प्रभात उप्रेती