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समीक्षा In Custody Film समीक्षक:डॉ पूरन जोशी असिस्टेंट प्रोफेसर एसएसजे विश्वविद्यालय

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं
जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उन को सुनाने के दिन आ रहे हैं
अभी से दिल ओ जाँ सर-ए-राह रख दो
कि लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं
टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं
सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं
चलो ‘फ़ैज़’ फिर से कहीं दिल लगाएँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं
फैज़
मरती हुई भाषा के साथ एक मरता हुआ शायर, एक प्रोफेसर जो उर्दू शायरी का कद्रदान है लेकिन विडम्बना है ये है कि कॉलेज में हिंदी पढ़ाता है. शायर और प्रोफेसर की उलझी हुई निजी ज़िन्दगी. अगर दो पंक्तियों में फिल्म ‘मुहाफ़िज़’ की व्याख्या करने को कहें तो मैं उसकी यही व्याख्या करूंगा.
1993 में रिलीज ‘मुहाफ़िज़’ फिल्म अंग्रेजी की मशहूर लेखिका अनीता देसाई के बुकर के लिए नामित उपन्यास ‘In Custody’(1984) पर आधारित है. मामूली बदलावों को छोड़ कर फिल्म उपन्यास की ही मूल कथा कहती है. फिल्म में शशि कपूर, ओम पुरी, शबाना आज़मी, सुषमा सेठ, नीना गुप्ता की मुख्य भूमिकायें हैं. फिल्म मुख्य रूप से दो किरदारों के चारों तरफ घूमती है एक प्रोफेसर देवेन जिसे ओम पुरी साहब ने अदा किया है और दूसरा नूर शाहजहानाबादी नूर शाहजहानाबादी का किरदार शशि कपूर जी के द्वारा निभाये गये बेहतरीन किरदारों में से एक है. बाकी किरदार इन दो किरदारों को पूरा करते हैं.
फिल्म की कहानी की बात करें तो देवेन शर्मा कॉलेज में हिंदी पढ़ाते हैं. उनकी पत्नी नीना गुप्ता है जो अति भौतिकतावादी है. देवेन की रूचि उर्दू भाषा में है. वे कहते भी हैं ‘उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं ‘दाग़’ , हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है’
एक दिन देवेन को अपने वक्त के प्रसिद्द शायर नूर के इंटरव्यू करने का एक प्रस्ताव आता है. नूर देवेन के पसंदीदा शायरों में से हैं. देवेन अपने कॉलेज में इस काम के लिए फंड्स की दरख्वास्त डालता है जो कि बड़ी मुश्किलों से मिलता है और वह भी अपर्याप्त. उसका काफी सारा वक्त इस इंतजाम में निकल जाता है. आज भी हमारे देश में कमोबेश विश्वविद्यालयों की स्थिति यही है. शोध -परक चीज़ें करने वाले प्राध्यापकों को दरकिनार ही किया जाता है. फिल्म में एक संवाद है ‘ग्रांट कॉलेज के पास बिलकुल नहीं लेकिन रजिस्ट्रार का खजाना लबरेज़ है’, जो हमारे ही देशकाल की बातें करते हैं. शोध के लिए प्रिंसिपल से एक हफ्ते की छुट्टी की बात करते हैं तो प्रिंसिपल उनको बेईज्ज़त कर देते हैं. दूसरी तरफ एक अपना आखिरी वक़्त देख रहा शायर है जिसकी रचनाओं का कोई मूल्य नहीं. गरीबी और मुफलिसी में जीता और उस जीने के बीच हज़ार-हज़ार बार मरने की दास्तान है इस शायर का जीवन. शायर का जिस्म और जान दोनों तड़पते हैं. इस रोल में शशि कपूर ने जान डाल दी है. उनकी अभिनय यात्रा के आखरी समय की फिल्म है जिसमें उनका मोटापा और चेहरे का ग़म नज़र आता है. जिन लोगों ने शशि जी की शुरूआती फिल्में देखी होंगी वो उनका ये रूप देख कर एकदम चौंक जायेंगे. एक बार शबाना आज़मी ने कहा था शशि जी की ख़ूबसूरती की आगे उनका अभिनय कभी चर्चाओं में नहीं आया जबकि वे एक बहुत बेहतरीन अभिनेता थे.
फिर से फिल्म पर आते हैं। देवेन किसी तरह इंटरव्यू के लिए नूर साहब को मना लेता है. रिकॉर्डिंग के वक़्त नूर कहते हैं इंसान ने इन इज़ादों ने ख़ुद इंसान को ही कैद में रख लिया है. बीते ज़मानों की अच्छी बातों को दोहराते हैं. ‘उस ज़माने में अगर दो रूपये जेब में होते तो मैं अपने को दौलतमन्द समझता’. देवेन एक सेंकंड हेंड टेप रेकॉर्डर की व्यवस्था भी करता है क्योंकि नया खरीदने के लिए पर्याप्त फंड नहीं मिला पाया. यहाँ देवेन का परिचय नूर की बीवियों से होता है. ये किरदार सुषमा सेठ और शबाना आज़मी के द्वारा निभाए गये हैं. शबाना का रोल नारीवाद से प्रेरित लगता है. एक संवाद में वे देवेन से कहती हैं ‘मैं भी शायरी करती हूँ, मैं भी लिख सकती हूँ लेकिन तुम ये यकीन ही नहीं करोगे कि एक औरत शायरी कर सकती है’. बेकार सेंकंड हेंड टेप रेकॉर्डर की वजह से रेकोर्डिंग ठीक नहीं होती है और देवेन का मज़ाक उड़ाया जाता है. एक दिन देवेन को एक चिट्ठी और शायरी का संग्रह मिलता है जो नूर साहब ने ख़ुद भेजा है. चिट्ठी में लिखा है ‘नये अशार भेज रहा हूँ, इनकी हिफ़ाज़त करना ये तुम्हारे नाम मेरी अमानत है’. यहीं से शुरू होती है ‘मुहाफ़िज़’ बनने की यात्रा. ‘मुहाफ़िज़’ का अर्थ है अभिभावक, रक्षक. शायर चाहता है उसके कलाम को लोग जानें और उनकी हिफाज़त हो. कलाम अच्छे हाथों में रहे. देवेन एकदम सही ‘मुहाफ़िज़’ है. शायर दम तोड़ देता है. उसकी मय्यत निकलती है और उसमें लोग जुड़ते जाते हैं. ‘मुहाफ़िज़’ के हाथों में शायर का कलाम है. शायर अपनी अंतिम यात्रा पर है. फ़िज़ा में उसके अशार गूँज रहे हैं. ये अशार गूंजते रहेंगे.
फिल्म में मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ की बेहतरीन रचनाओं को जगह दी गई. रेख्ता पर दी गई एक जानकारी के अनुसार “जब फ़ैज़ को लाहौर जेल से एक डेंटिस्ट के पास ज़ंजीरों में बाँध कर ले जा रहे थे, रास्ते में लोग उन्हें पहचान गए और उन के ताँगे के पीछे हो लिए, उसी मंज़र को बयान करते हुए फ़ैज़ ने ये नज़्म कही”. नूर साहेब की अंतिम यात्रा के समय पृष्ठभूमि में ये ही नग़मा गूंजता है.

 चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं 
 तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा काफ़ी नहीं
 आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
 दस्त-अफ़्शाँ चलो मस्त ओ रक़्साँ चलो

ख़ाक-बर-सर चलो ख़ूँ-ब-दामाँ चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानाँ चलो
हाकिम-ए-शहर भी मजमा-ए-आम भी
तीर-ए-इल्ज़ाम भी संग-ए-दुश्नाम भी
सुब्ह-ए-नाशाद भी रोज़-ए-नाकाम भी
उन का दम-साज़ अपने सिवा कौन है
शहर-ए-जानाँ में अब बा-सफ़ा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायाँ रहा कौन है
रख़्त-ए-दिल बाँध लो दिल-फ़िगारो चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आएँ यारो चलो

यूँ तो फिल्म कई सवाल उठाती है लेकिन इन सवालों में दो सवाल जो मुझे ज्यादा वाजिब लगते हैं रचनातमक लोगों के साथ समाज इतना क्रूर क्यों होता है? अच्छा पढ़ने-पढ़ाने वाले शिक्षक विश्वविद्यालयी व्यवस्था में हाशिये पर क्यों होते हैं? ये किस्सा 1984/93 का है और हम 2024 में हैं!