गिर्दा –स्मृति शेष
उत्तराखंड के समाज को समझने में गिर्दा ने अपने जन गीतों के साथ जो भागीदारी की ओर उसके बाद एक सामाजिक- राजनैतिक कार्यकर्ता और यहां के जल जंगल जमीन की आवाज के रूप में एक पहचान बन गये।उन के जनगीतों में पहाड़ की पीड़ा, पहाड़ की कठिन जीवन शैली ने उनके जाने के बाद उनके व्यक्तित्व को अधिक समझा।उनका यह गीत आज के जनमानस में लोकप्रिय हो चला है।
छानि खारिक में धूंआ लगा है -ओ होरे
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है।
गीली है लकड़ी,कि गीला धुंआ है।
साग क्या छौंका कि गौं महका है।
ओ हो रे——–
गिर्दा ने अपने जीवन को अपने ढंग से जीया था।समाज के क्रियाकलापों पर पैनी नजर रखने वाले गिर्दा ने अपने गीतों- कविताओं के माध्यम से उसे अभिव्यक्त किया था।
1943 में अल्मोड़ा के ज्योली ग्राम में जन्मे गिरीश तिवारी ने ‘ गीत नाट्य प्रभाग’ नैनीताल में अपनी सेवाएं दी थीं। लेकिन उन्होंने नौकरी से अधिक अपनी रचनात्मकता से उत्तराखंडी समाज को कुछ सोचने पर मजबूर किया था। पर्यावरणविद्और उत्तराखंड के समाज को समझने वाले उनके परम सहयोगी प्रोफेसर शेखर पाठक ने उनके व्यक्तित्व पर लिखा है कि — किसी भी रचनात्मक व्यक्तित्व की तरह गिर्दा ने जो जगह छोड़ी है वह भरी नहीं जा सकती। उत्तराखंड चलता रहेगा। महानतम नायकों के न रहने पर भी यह दुनियां चलती रही है।बस गिर्दा की सही स्मृति हमें तमीज देती रहेगी।
उत्तराखंड के जन आंदोलनों में पूर्व में गौर्दा ने आजादी के दौर में जन गीतों की प्रस्तुति दी थी, आजादी के बाद सत्तर के दशक के उत्तराखंडी समाज और जंगल -जमीन के प्रश्नों पर उनकी समझ ने उनके एक नये रुप को देखा जब उन्होंने गाया।
आज हिमाल तुमन कैं धत्यूछ।
जागौ जागौ हो मेरा लाल।
नी करि दी हालौ हमरी नीलामी।
नी करि दियो हमरो हलाल—–।
हमन उज्याड़ी फिरी के करला।
पछिल तुमारो मन पछताल।
जसी पीड़ तुमन कैं हुछी।
उसै हमारा हुनी हवाल।
पिछले दिनों गढ़वाल क्षेत्र की थराली आपदा के पश्चात गिर्दा के उस गीत ने हमारे समाज को और इस प्राकृतिक आपदा जिसकी जिम्मेदारी हमारी भी है के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया।
22 अगस्त को उनकी पुण्यतिथि है, सामाजिक आंदोलनों,सारोकारो से जुड़े उनकी स्मृति को ‘शक्ति’ की श्रद्धांजलि।
डा० निर्मल जोशी