पुस्तक समीक्षा: दास्तान-ए-सीमा प्रहरी समीक्षक: प्रभात उप्रेती (वरिष्ठ साहित्यकार)

वर्तमान में वर्दीधारियों ने अपने सेवाकाल के लौहमर्षक अनुभवों को लेकर अंग्रेज़ी में कई किताबें लिखी हैं। हिंदी में भी मेरी खाकी मेरा अभिमान जैसी पुस्तकें आई हैं, जिन पर फिल्में भी बन चुकी हैं।
हमारे उत्तराखंड के रिटायर्ड डी.आई.जी., बीएसएफ श्री के.एस. गुंज्याल की पुस्तक ‘दास्ताने सीमा प्रहरी’ तक्षशिला प्रकाशन, उत्तराखंड से प्रकाशित हुई है। हार्डबाउंड यह पुस्तक उच्च हिमालय क्षेत्र की व्यास घाटी के गुंजी गाँव के रहने वाले गुंज्याल साहब ने बड़ी शिद्दत से अपनी खतरनाक सेवा-यात्रा, यथार्थ और मानवीय भावनाओं से भरे अनुभवों के ज़रिए पाठकों के सामने रखी है — जो उस कठिन जीवन को साकार करती है जो हमारी फोर्सेस हमारे बचाव के लिए जीती हैं। इस बहुत कठिन ज़िंदगी की चाह और उसकी वर्दी किसी को भी सम्मोहित कर सकती है। यही सम्मोहन गुंज्याल साहब को स्टेट बैंक की नौकरी से बीएसएफ़ में ले आया।
सहज भाषा में अपने बचपन, भर्ती होने से लेकर आतंकवादियों और स्मगलरों से मुठभेड़ों, रहस्यमय घटनाओं और मानवीय संवेदनाओं का वर्णन इस पुस्तक को उन नादानों के लिए रोमांचक बना देगा जिनके लिए कहा गया है —
“ज़माने में बहुत ऐसे नादान होते हैं,
ले जाते हैं वही कश्ती जहाँ तूफान होते हैं।”
आतंकवादियों का पीछा करते समय महीनों तक कदमों के निशान ढूँढ़ना, घात लगाकर बिल्कुल खामोश रहना — ऐसा लगता है जैसे एक फौजी की मनःस्थिति एक शिकारी जैसी हो जाती है। महीनों घात लगाना,पद चिन्ह देखना,मल के निशान कितने ही दिन हर मौसम में बिना एक पत्ता हिले इस तरह चलना — मौत को हथेली पर लेकर चलना — जहाँ पीछा उनका किया जा रहा है जो प्रशिक्षित और घातक हथियारों से लैस हैं!
मैंने पहले पुस्तक यूँ ही हाथ में ली थी। पहले तो लगा यह सामान्य संस्मरण होगा, पर धीरे-धीरे इसने मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया और मैं धड़कते दिल से इसे पढ़ता गया। एक-एक क्षण रोमांच से भरने लगा —
“सावधानी के लिए मैं भी वही खिड़की में एके-47 रायफल के साथ आड़ लेकर खड़ा हो गया। जैसे ही जवान लाट्रीन घर के पास पहुँचा तो उसे अंदर रायफल काॅक करने की आवाज़ सुनाई दी। इस पर वह लौटकर चिल्लाया — ‘सर, अंदर मिलिटेंट है!’ और पास की ईंटों की ढेरी के पीछे लेट गया। इतने में मैंने देखा, अचानक लाट्रीन का दरवाज़ा खुलता है और मिलिटेंट बाहर कूदते हुए जवान पर फायर करता है। पर ठीक सामने, लगभग 15–20 गज़ की दूरी पर खिड़की के पास मैं पहले से तैयार खड़ा था। मैंने बिना समय गँवाए अपनी एके-47 से दो-तीन राउंड ब्रेस्ट फायर खोल दिया। इसी बीच दीवार के पास तैनात अन्य जवान भी फायर खोल देते हैं…”
ऐसे कितने ही दृष्टांत हैं जब पाठक की साँसें रुक जाती हैं, धड़कनें तेज़ हो जाती हैं। इसमें किसी साहित्यिक शिल्प का कमाल नहीं, बल्कि यह जीवंत अनुभव हैं — मौत से आमने-सामने भिड़ जाने का जज़्बा और ड्यूटी का कॉल है।
क्या प्रशिक्षण है, क्या मुकाबला है और कैसी मानवीय संवेदनाएँ! धन्य हैं हमारी फोर्सेस! हर कदम पर मौत दुबकी रहती है। बस एक गलती — और फिर मौका नहीं मिलता। एक छोटी सी चूक — और सीधा शरीर गोलियों से छलनी! बहुत ही योजनाबद्ध और करीने से यह सब मुकाबले करने पड़ते हैं। खुली लड़ाई में सब कुछ सामने होता है, पर यहाँ तो लुकाछुपी का घातक खेल है।
गुंज्याल जी को अफ़सोस भी है कि बहादुरी दिखाने के बाद भी फौज में इनामात सही आदमी तक हमेशा नहीं पहुँचते — इनाम भी क़िस्मत लिए होते हैं!
कश्मीर की घाटी, रेगिस्तान का प्राकृतिक-सामाजिक स्वरूप, मानवीय घटनाएँ — सब कुछ उतना ही रोमांच पैदा करता है जितना मुठभेड़ का वर्णन। माइनस 20 डिग्री सेल्सियस से लेकर रेगिस्तान की चिलचिलाती गर्मी में हमारे सैनिक किस तरह की सख्त ज़िंदगी जीते हैं, आतंकवादियों, स्मगलरों, घुसपैठियों से भिड़ते हैं, चुनाव, बाढ़ या प्राकृतिक आपदा में आम जनता के लिए सब कुछ करते हैं — इसे पढ़ कर अनायास ही हाथ माथे पर सलाम के लिए उठ जाता है।
यह पुस्तक सिर्फ पढ़ने लायक नहीं, जीने लायक भी है — ख़ासकर उनके लिए जिनको वर्दी की महक उत्तेजित करती है और मोर्चों पर मुकाबला करने का आह्वान देती है।
बहुत सी दिलचस्प घटनाएँ हैं — आदमी है तो उसमें सारे रंग लिपटे रहते हैं। पुस्तक रोमांच देती है, ताक़त देती है — देशभक्ति, बहादुरी और ड्यूटी के लिए समर्पण का भाव देती है — मौत से साक्षातकार का जोखिम भरा दृश्य उपस्थित करती है। डी.आई.जी साहब ने कुछ छुपाया नहीं — वीरता भी है, तो भय और कायरता भी है; मानवीय कमज़ोरी, गरीबी, शोषण, जहालत — सब कुछ है।
आप पढ़ेंगे तो आपको एक प्रत्यक्ष जद्दोजहद के चित्र दिखेंगे। मुझे तो यह पढ़कर डी.आई.जी साहब से आमने-सामने बैठकर और भी सुनने का मन कर गया।
बहुत बधाई सर! उस ज़िंदगी के लिए जो आपने जी और हम सबको दिखाई।