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“हिमालय आपदा” – गंगा और यमुना का विकास या विनाश

Dehradun-उत्तराखंड जल बिरादरी द्वारा आयोजित “हिमालय आपदा – गंगा और यमुना का विकास या विनाश पर दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में हुई एक दिवसीय बैठक में वक्ताओं ने कहा कि मौजूदा हालात को बनाने में मौजूदा नीतियां ही जिम्मेदार है। इसलिए कि हिमालय क्षेत्र में सड़को की चौड़ाई 5 – 6 मीटर से अधिक नहीं होनी होनी चाहिए।

बैठक में विषय वस्तु को आरंभ करते हुए पर्यावरणविद सुरेश भाई ने कहा कि इस वक्त की आपदा मानवजनित है। उन्होंने कहा कि हिमालय में चौड़ी सड़कों की आवश्यकता नहीं है। जब से उत्तराखंड, हिमाचल में चौड़ी सड़के और बांध बनने आरंभ हुए है तब से उत्तराखंड आपदा का घर बन गया है।

बैठक में पहुंचे मैग्सेसे पुरस्कार विजेता जल पुरुष राजेंद्र सिंह ने कहा कि आज जो हिमालय में आपदा ने घाव दिए है उसके जिम्मेदार भी हम ही लोग है। उन्होंने कुछ महीने पहले का उदाहरण दिया कि हिमाचल में बांधो की तबाही ने पंजाब में लोगों को डूबो दिया। हुआ यू की भाखड़ा नागल बांध सहित अन्य बांध जून में ही भर गए थे। मगर हाल ही में पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में जब बारिश हो रही थी उसी वक्त भाखड़ा नागल बांध और अन्य बांधों को खोल दिया जिसने पूरे पंजाब में तबाही मचा दी। ऐसे ही संपूर्ण हिमालय में अनियोजित विकास के कारण आज हिमालय भारी संकट में आ गया। राजेंद्र सिंह ने आगे कहा कि आज नदियों की आजादी, हिमालय की हरियाली दोनों ही विपदा से गुजर रही है। उन्होंने कहा कि हम हिंदुस्तान वालों को कमसे कम “भगवान” शब्द को समझना होगा। हमारे पूर्वजों ने भगवान को प्रकृति से जोड़ा है। इसलिए हम लोग पंचभूत को मानते है। अर्थात हमें प्रकृति और प्रकृति हमारे लिए जैसी व्यवस्था को हमे पुनः बहाल करनी होगी। जल पुरुष राजेंद्र सिंह ने वर्तमान की व्यवस्था पर आरोप लगाया कि आज का विकास सिर्फ वी सिर्फ एक लॉलीपॉप है। उन्होंने 1988 में अरावली की पहाड़ियों में लोगो द्वारा जल संरक्षण के कार्यो की तरह इस वक्त हिमालय वासियों को भी करना होगा। सरकारों के भरोसे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण नहीं हो सकता। लोक सहभागिता से ही प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और आपदा से बचाव के कार्य हो सकते है।


पद्मश्री कल्याण सिंह रावत ने कहा कि पानी के टावर हिमालय पर खतरनाक संकट आ चुका है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे है। हमने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की लोक परंपरा भुला दी है। विभिन्न योजनाओं के मार्फत भारी मात्रा में पौधा रोपण हो रहा है, जो बिना प्रयोजन के हो रहा है। अच्छा हो कि वृक्षारोपण आवश्यकता के अनुरूप ही किया जाए। उच्च हिमालय से चौड़ी पत्ती के वृक्ष कम हो रहे है और चीड़ ने इनकी जगह ले ली है। यह भी आपदा आदि को आमंत्रित कर रहे है। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए जितनी भी योजनाएं या कार्य हो रहे है वे सभी अनियोजित तरीके से क्रियान्वित हो रही है। यह भी खतरे पैदा कर रहे है।

पर्यावरण के जानकार प्रो० वीरेंद्र पैन्यूली ने सरकार के इस बयान पर गौर करना होगा कि दिल्ली में 10 प्रतिशत मूल यमुना जल है तो 90 प्रतिशत जल क्या है। इसलिए सरकार के कारण ही इस तरह की अनियोजित विकास की योजनाओं को अंजाम दिया जा रहा है, जिसका परिणाम आपदा के रूप में सामने आ रहा है। पूर्व राज्य मंत्री रविंद्र जुगरान ने कहा कि हिमालय विकास के लिए अलग से मंत्रालय का गठन हो ताकि हिमालय के विकास के कार्य लोकहित में हो सके।
मात्री सदन के स्वामी शिवानंद ने कहा कि उत्तराखंड की सरकार विकास के प्रति संवेदनशील नहीं है। गंगा संरक्षण के लिए दो सनातनी गुरुओं ने आहुति दी है। मगर सरकार ने कभी उनकी और अन्य धर्म गुरुओं की मांग पर गौर नहीं किया। कई साधु संत गंगा संरक्षण के लिए आंदोलित है पर सरकार कभी उनकी चिंता नहीं समझती है।
दिल्ली जल बिरादरी के संजय सिंह ने कहा कि जितने भी लोग और संगठन आपदा राहत और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए कार्य कर रहे है, उन्हें एक श्वेत पत्र जारी करना होगा। ताकि भविष्य के लिए कुछ कार्य किए जा सके। बैठक में जन कवि अतुल शर्मा ने एक बार फिर से संभावनाएं बढ़ा दी है। उन्होंने अपने एक गीत “अब नदियों पर संकट है सारे गांव इकट्ठा हो” गया और कहा कि अब विकास को लेकर सभी को उत्तराखंड आंदोलन की तरह इक्कठा होना होगा। हरियाणा से आए संजय राणा ने कहा कि इस वर्ष यमुना ने 10 हजार बीघा जमीन लील ली है। यानी 5 किमी वर्ग क्षेत्रफल को डूबो दिया है। कहा कि 45 साल पहले यहीं से यमुना बहती थी। आपदा से हिमालय ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्र भी आपदा प्रभावित है।

भू वैज्ञानिक प्रो० एस० पी० सती ने चिंता व्यक्त की है आज का युवा दिग्भ्रमित हो गया है। इसका कारण भी सरकारें ही है। उन्होंने कहा कि मरुस्थल में बारिश हो रही है और हिमालय में अनियंत्रित बारिश हो रही है। यही बदलाव जो आया है उसके कारण आपदाएं आ रही है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में बन रही घटिया किस्म की सड़के आपदा को आमंत्रित कर रही है। कुलमिलाकर वक्ताओं ने हिमालय के संकट पर चिंता व्यक्त की है।

इतिहासकार डॉ० योगेश धस्माना ने कहा कि उत्तराखंड हिमालय सबसे पहले केयरिंग कैपिसिटी पर नीति बनानी होगी। यहां पर पर्यटक और तीर्थ यात्री कब और कितने आए इस पर एक व्यवस्थित नीति बननी चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र सिंह रावत ने कहा कि हिमालय में बढ़ती आपदा को लेकर हिमालय के युवाओं को “हिमालय प्रहरी या सीमांत प्रहरी” के रूप में प्रशिक्षित किया जाए। इसलिए कि वे वहां के हालात और पर्यावरण को अच्छी तरह समझ सकते है।

इस दौरान निम्नलिखित सुझाव सामने आए है।

1-यमुनोत्री और गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर भविष्य में सड़क चौड़ीकरण से निकलने वाले मलवे को यमुना और भागीरथी में न डाला जाए। डंपिंग जोन बनाकर मलवा का निस्तारण हो और इसके ऊपर पौधों का रोपण किया जाए।

2-गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बड़ी संख्या में काटे जाने वाले देवदार और अन्य प्रजातियां के हरे पेड़ों को बचाने के लिए इस अध्ययन रिपोर्ट में सुझाए गए बिंदुओं पर ध्यान दिया जाए।

3-यमुना और गंगा के उद्गम में रहने वाले छोटे और सीमांत किसानों के जीवन एवं आजीविका संरक्षण के लिए जलवायु अनुकूल कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है।

4-गौमुख और बंदर पूछ ग्लेशियरों की बदलती स्थिति को ध्यान में रखकर इसके आसपास की जैव विविधता अर्थात पेड़, पौधे, जड़ी बूटियां, जीव-जंतु, गाड़-गदेरों के संरक्षण के लिए राज्य और केंद्र सरकार को स्थानीय लोगों के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है।

5-गंगा और यमुना के उद्गम से 150 किलोमीटर की आबादी तक बड़े निर्माण कार्य इसलिए नहीं होने चाहिए कि यहां पर बाढ़, भूकंप और भूस्खलन की संभावनाएं बहुत तेजी से बढ़ रही है। इसलिए यहां पर छोटे-छोटे निर्माण कार्य जैसे- मजबूत सड़कें, जल स्रोतों का संरक्षण, वृक्षारोपण, जल स्वच्छता जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम की आवश्यकता है। जिससे स्थानीय महिलाओं और युवकों को रोजगार भी मिलना चाहिए।

6-गंगा और यमुना के क्षेत्र में आ रहे अंधाधुंध पर्यटक और तीर्थ यात्रियों के द्वारा डंप किया जा रहा प्लास्टिक कूड़ा- कचरा का प्रबंधन उचित देखभाल में करने की आवश्यकता है ताकि उसे पवित्र गंगाजल में न डाला जाए। इसके साथ ही लोगों द्वारा विसर्जित होने वाले मल मूत्र की निकासी गंगाजल की धारा में जाने से रोका जाए।

7-हिमालय क्षेत्र में विकास के लिए पृथक मॉडल की आवश्यकता है अर्थात् एक “हिमालय नीति” बननी चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है कि हिमालय में विकास मैदानी मानक के आधार से नहीं चल सकते हैं।

8-तीर्थ यात्रियों की प्रति वर्ष बढ़ती संख्या को सीमित किया जाय और यात्रा से पहले यात्रियों का प्रशिक्षण हो जिसमे सुनिश्चित हो कि तीर्थ यात्रियों की वजह से हिमालय में गंदगी न हो सके।

9-तीर्थ यात्रा के दौरान यह सुनिश्चित किया जाय कि यात्री व्यक्तिगत वाहन की जगह सरकारी वाहन का ही उपयोग करे, जिससे हिमालय में वाहनों की बढ़ती संख्या पर रोक लग सके। जिससे बढ़ते ब्लैक कार्बन के खतरे को कम किया जा सकें।

इस दौरान पद्मश्री कल्याण सिंह रावत, उत्तरप्रदेश से आए पर्यावरण कार्यकर्ता संजय राणा, स्तंभकार प्रो० वीरेंद्र पैन्यूली, जनकवि अतुल शर्मा, सर्वोदय कार्यकर्ता रमेश शर्मा, नागरिक मंच के सुभाष नौटियाल, राजस्थान जल बिरादरी के संजय भाई, हिमालय बचाओ आंदोलन के समीर रतूड़ी, ख्यातिलब्ध लोक कलाकार नंदलाल भारती, डा० आशालाल, सर्वोदय नेत्री कुसुम रावत, पर्यावरण कार्यकर्ता श्यामलाल, लोक कलाकार कुंदन सिंह चौहान, सामाजिक कार्यकर्ता शैलेन्द्र डेविड आदि लोगो ने अपनी अपनी बात रखी।

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