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मैं बना पीठासीन अधिकारी-प्रभात उप्रेती

अफसर बनने की चाह हमारे डीएनए में है और चुनाव की ड्यूटी में अवचेतन मस्तिष्क की यह चाह की पूर्ति तब होती है जब चपरासी से लेकर गज़ेटेड अफसर के नाम आगे “अफसर”, “अधिकारी” लग जाता है।

पर अधिकतर आराम के आदी कर्मचारियों को यह थोपी हुई साहबी लगती है। बहुत से इससे बचना चाहते हैं और चुनाव से बचने के लिए प्रसाद बांटने से लेकर, पहुंच, बीमारी का आलंबन लेते हैं।

चुनाव हुआ तो गाड़ी वाले डरे। पता नहीं किस खुंदकबाज़ी में आरटीओ उनके शीशे में चुनाव ड्यूटी की चिप्पी लगवा दे। फिर चुनाव तक झेलते रहो। पैसे भी सालों बाद मिलते हैं।

बर्फीले इलाके, रेगिस्तान, दलदल, आतंकवादी इलाके में भी ड्यूटी लगती थी जहां पांच-पांच दिन पैदल चलना पड़ता था। ‘न्यूटन’ फिल्म में यह दिखाया गया है। पर कभी कोई सेक्टर मजिस्ट्रेट बन जाने पर फूल के कुप्पा भी हो जाते हैं। हमारे एक साथी सेक्टर मजिस्ट्रेट बने तो वह अपने गांव में फोन करते दिखाई दिए, “अम्मा हम सेक्टर मजिस्ट्रेट बन गए।” कुछ के लिए बोरियत। पर वर्तमान में मोबाइल है तो क्या ग़म।

पर मैं खुश होता, सरकारी खर्चे पर नई जगह जाने का एडवेंचर। कभी हेलीकॉप्टर में भी चलने का सौभाग्य किसी को मिलता है। साथ में पूरी पार्टी, सैल्यूट मारने को पुलिस। मैं चुनाव अधिकारियों से सबसे इंटीरियर इलाके में ड्यूटी लगाने के लिए जब कहता तो वे आश्चर्यचकित हो जाते। पर मेरी इंटीरियर में उन्होंने मेरी ड्यूटी लगाई नहीं। वह उनका प्यार था—कहां गुरुजी की ड्यूटी इंटीरियर में लगा के उन्हें परेशान करें।

कुछ तो इसे पिकनिक के तौर पर मनाते। बाकायदा स्टोव, अन्य तामझाम साथ लेकर चलते—मछली पकड़ी, तली जा रही है, बकरा कट रहा है। भड्डू में मुर्गा समाया तो बड़ा मज़ा आया। नाच, गाना… जाम भी हाज़िर है। पटवारी, पुलिस वाले सही मिल गए तो बल्ले ही बल्ले। पर सतर्क काम। ड्यूटी में रिज़र्व की ड्यूटी बड़ी बोरिंग होती है। चुनाव होने तक मुख्यालय में पड़े रहो। कोई अनुपस्थित हुआ, इमरजेंसी हुई तो तुरंत मूव करो।

मेरी पहली ड्यूटी पौड़ी में लगी। पर मेरा कागज़ी काम में बहुत ढीला था। कागज़-पत्री, हिसाब की समझ तब भी न थी, अब भी न है। मेरे साथ दो कर्मचारी पोलिंग ऑफिसर के रूप में थे। मेरे साथ एक पोलिंग ऑफिसर जाट महोदय थे। मुझे फिक्र थी कि बैलेट पेपर का हिसाब कैसे करूंगा! जाट महोदय ने कहा, “अजी फिक्र न करो, मेरे को सब आता है।”

मतदान हुआ तो एक बूढ़ी महिला आई। उसने जो ठप्पा लगाया तो ज़ोर से लगाया। और सभी उम्मीदवारों पर लगाया—कहा, “तू भी ले, तू भी ले…” सब को ही लगा दिया। एक गांववासी ने ग़ुस्से में ठप्पा लगाकर मुहर ही किसी उम्मीदवार के चिन्ह के सिर पर तोड़ दी। बोले, “पांच साल कहां थे!” और भी दिलचस्प घटनाएं सुनने को मिलीं। एक नेत्रहीन महोदय आए। उसके लिए एक फ़ॉर्म भरना पड़ता है। जाट महोदय ने कहा, “अजी कहां फार्म भरवा रे। मैं ही साथ चल के भर दूंगा।” यह ग़लत तो था पर आसान था। उस समय राजनीतिक बेईमानी न थी इसलिए वे खुद ही महोदय को अंदर ले गए। उससे पूछकर मुहर लगवा दी।

एक मतदाता ने अंदर जाकर अपने हाथ में ही मुहर लगा दी—कांग्रेस का चिन्ह जानकर। पहले प्रपत्र इनवैलिड बहुत होते थे। सरल, सीधा मतदाता। हमारे पोल में तो किसी दल का कोई पोलिंग एजेंट भी न रहा। वह सुबह आए और कह गए, “गुरुजी आप ही देख लीजिएगा।”

चुनाव खत्म हुआ तो हम अपना सामान समेटने लगे पर हिसाब ही नहीं ठीक हो रहा था—बैलेट पेपर, काउंटर बैलेट पेपर, बचे बैलेट पेपर और भी औपचारिकताएं पूरी ही नहीं हो रही थीं। साथी ने जो अपने सब जानने की हांकी थी, तो मैं निश्चित हो गया था।

गाड़ी आ गई और हिसाब हुआ ही नहीं। सारी गाड़ी हमारे इंतज़ार में थी। जब सब गड़बड़ हुआ तो साथी ने सारा तामझाम उठा लिया और कहा, “वहीं कलक्ट्रेट में ही सब होगा।” कलक्ट्रेट में सब पार्टियां आ गई थीं, हमारी पेटी जमा ही नहीं हो पा रही थी। हिसाब ही नहीं था। कलक्ट्रेट में बहुत से कर्मचारी मेरे ही शिष्य थे। उन्होंने हमारे हालात देखे तो दंग रह गए। न सील लगी, न बैलेट पेपर का हिसाब सही। वे बोले, “गुरु जी ये क्या कर दिया आपने!” फिर वे सब नए कागजात लाए। पेटी की सील तोड़ी। और बैलेट पेपर का हिसाब ठीक किया। मेरे शिष्यों ने सब निपटा कर ठीक-ठाक कर दिया, क्योंकि मूल में कोई बेईमानी तो थी नहीं।

चुनाव में उस समय बाहुबलियों का ज़ोर था। एक पुराने पीठासीन अधिकारी की ड्यूटी रामपुर में लगी। वह कहती हैं कि निम्न जाति के लोगों के गांव बाहुबली जाते और कहते—”वोट किसे दोगे?” गांव वाले डर से कहते, “आपको ही।” इस पर वह बोलते, “तो ठीक है। तुम्हारे वोट हम दे देंगे। तुम्हें बूथ में जाने की ज़रूरत नहीं।” वह कहती हैं कि मैं प्रेजाइडिंग ऑफिसर थी। लम्बे-चौड़े आदमी बुर्के में आते थे। अब उनके बुर्के उठाकर पता लगाने की हिम्मत किसे!

देश को टीएन शेषन का आभार मानना चाहिए जिन्होंने बूथ कैप्चरिंग करने वाले बाहुबलियों को ज़मीन पर पटका। चुनाव को अधिक लोकतांत्रिक बनाया।

विभिन्न रंगों से भरी है यह मतदान ड्यूटी। आदमी के व्यक्तित्व के अनुसार हर मामले में—किसी के लिए सज़ा, किसी के लिए मज़ा है।