हिमालय: भूगोल से परे मानव समाज की जीवंत परंपरा
यहाँ, ठीक इसी जगह, मैं आने वाले समय में मध्य हिमालय में स्थित उत्तराखंड के इतिहास को दर्ज़ करने का प्रयास करूँगा। चूँकि, एक प्रशासनिक-भौगोलिक इकाई के रूप में उत्तराखंड की सीमाएँ अभी हाल ही में अस्तित्व में आई हैं, हमारी कहानी इन सीमाओं से काफ़ी बड़ी भी है, मिसाल के लिए, कभी यह काली नदी का क़िस्सा है, तो कभी टोंस और करनाली नदी के बीच की दास्ताँ, कभी काली के वार-पार की कथा और कभी अलकनंदा का कोई आख्यान, तमाम प्रयागों से गुजरता हुआ गंगा का पुराण गढ़ता हुआ, और कभी यह किसी नौले (जलवापिका/ पानी का स्रोत) या धारे का एक छोटा सा अफ़साना भर है. इस शृंखला की यह पहली कड़ी एक परिचय की तरह है, आपके और हमारे लिए विषय प्रवेश की तरह।
हिमालय को अक्सर ‘पृथ्वी की छत’, ‘तीर्थों की भूमि’, या ‘प्राकृतिक सीमा’ के रूप में देखा गया है। लेकिन यह समझ अधूरी है। हिमालय सिर्फ़ एक भौगोलिक संरचना नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से एक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्र रहा है — जिसमें लोग आए, बसे, टकराए, गुज़रे और इतिहास बनता गया। इतिहासकारों ने लंबे समय तक हिमालय को ‘सीमांत क्षेत्र’ मानकर अध्ययन किया, जबकि स्थानीय परंपराएँ इसे हमेशा केंद्रीय जीवन के हिस्से के रूप में देखती रही हैं। संस्कृत साहित्य, बौद्ध ग्रंथों और पुराणों में हिमालय देवभूमि के रूप में वर्णित है। कुमारसम्भवम् में कालिदास हिमालय को ‘पर्वतराज’ कहते हैं और उसके हृदय में तप करती हुई पार्वती का वर्णन करते हैं। महाभारत में पांडवों की अंतिम यात्रा इसी हिमालय की ओर होती है। यह कल्पना भर नहीं है, ठोस भौगोलिक आधार पर गढ़ी और रची हुई है। प्राचीन व्यापार मार्ग (जैसे उत्तरापथ) हिमालय के दर्रों से होकर गुजरते थे — जहां सांस्कृतिक आदान-प्रदान का सिलसिला सदियों तक चलता रहा।
हिमालयी क्षेत्र भौगोलिक अवरोधों के बावजूद हमेशा से एक ऐसा स्थल रहा है जहाँ विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं, धर्मों और जीवन-शैलियों का संवाद होता रहा है। भारत, तिब्बत, नेपाल, भूटान और चीन के मध्य यह पर्वतीय श्रृंखला न केवल एक भौगोलिक सीमा थी, बल्कि एक ‘जादुई दरवाज़ा भी था — जहाँ से तीर्थयात्री, व्यापारी, साधु, बौद्ध भिक्षु और कारीगर आते-जाते रहे। इस आवाजाही से न केवल वस्तुएँ, बल्कि विचार, प्रतीक और विश्वास भी साझा होते रहे। उदाहरण के लिए, पिथौरागढ़ के तीर्थ घाटियों में मिलने वाली पांथीय परंपराएँ, काली नदी के पार नेपाल के सांस्कृतिक स्वरूपों से गहराई से जुड़ी रही हैं।
कई हिमालयी स्थलों पर बौद्ध और ब्राह्मणिक परंपराओं का सह-अस्तित्व मिलता है। लद्दाख, स्पीति और किन्नौर जैसे क्षेत्र ‘ल्हासा’ से लेकर बनारस तक फैली धार्मिक-दार्शनिक यात्राओं का हिस्सा रहे हैं। सिक्किम और दार्जिलिंग के इलाक़ों में नेपाली, भूटानी और तिब्बती सांस्कृतिक तत्वों का मिश्रण आज भी दिखता है — मंदिरों की संरचना, पर्व-त्योहारों और बोलियों में। इसी प्रकार उत्तराखंड के जोहार और ब्यांस जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में तिब्बती वस्त्र, भोज्य पदार्थ और धार्मिक प्रतीकों का गहन प्रभाव रहा है, वहीं इन क्षेत्रों के व्यापारी अपने साथ बनारस, लखनऊ और रामपुर की कूटनीतिक और शास्त्रीय परंपराएँ भी लाते रहे।
हिमालय में सांस्कृतिक आदान-प्रदान का सबसे अहम पहलू यह रहा कि स्थानीय समाजों ने उसे एकीकृत नहीं किया, बल्कि विविधता को आत्मसात किया। यही कारण है कि एक ही गाँव में बौद्ध चैत्य और शिव मंदिर साथ-साथ मिल सकते हैं, या लोक-गाथाओं में कोई चीनी राजा, नेपाली राजकुमारी और कुमाऊँनी गायक एक ही कथा में आ जाते हैं। यह सिर्फ़ इतिहास नहीं, बल्कि समकालीन पहचान का निर्माण है — जहाँ हिमालय एक ‘सीमा’ नहीं, बल्कि एक पुल बन जाता है, संवाद और सह-अस्तित्व का।
19वीं शताब्दी में ब्रिटिश सत्ता ने हिमालय को किसी ‘अनजाने क्षेत्र’ या अजनबी सी जगह के रूप में देखा और सर्वे ऑफ इंडिया की मदद से इसके ‘नक्शे’ और ‘सीमाएँ’ तय की गईं। सर्वेयरों और हिमालयी अभियानों ने यह कल्पना बनाई कि हिमालय एक दुर्गम, रहस्यमय और गैर-राजनीतिक क्षेत्र है। इससे पहले के कश्मीर, हिमाचल, कुमाऊँ, गढ़वाल, नेपाल, सिक्किम, भूटान, और तिब्बत के मध्य जो संवाद और गतिशीलता रही थी, उसे बाधित कर दिया गया। दरअसल, ब्रिटिश सत्ता ने हिमालय को एक सैन्य-रणनीतिक और पर्यावरणीय ‘रिज़र्व ज़ोन’ के रूप में बदल दिया।
1947 के बाद भारतीय हिमालय को एक बार फिर ‘सीमावर्ती क्षेत्र’ के रूप में चिह्नित किया गया — इस बार राष्ट्र-राज्य की सुरक्षा नीति के तहत। भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान के तनावों ने हिमालय की भू-राजनीतिक भूमिका को और तीव्र कर दिया। उत्तराखंड, हिमाचल, लद्दाख और अरुणाचल में सड़कें, सुरंगें और सेना की छावनियाँ और निगरानी तंत्र इसी इतिहास का हिस्सा हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों — जैसे रं, शौका, जाड़, लामा, लद्दाखी, गुज्जर, या मणिपुरी नागा — के अनुभव और इतिहास अक्सर अदृश्य रहे हैं।
हिमालय के लोगों के पास अपने ‘इतिहास’ हैं — जो लिखित नहीं, पर जीवित हैं।मिसाल के लिए कुमाऊँ में जागर, लद्दाख में ल्हासा-यात्रा की कहानियाँ, सिक्किम की नामथोंग कथाएँ या अरुणाचल में दुन्ये गीत — ये सब क्षेत्रीय स्मृति की ऐतिहासिक विरासत हैं। यहाँ इतिहास सिर्फ़ तारीख़ों में नहीं, रागों, पहाड़ों, पगडंडियों और कुल देवी-देवताओं के नामों में छिपा है। लेकिन मुख्यधारा का इतिहासलेखन अक्सर इन्हें मिथक या लोक-कथा कहकर किनारे कर देता है। हालाँकि अतीत सम्बंधी उनके अन्वेषण के स्थापित ऐतिहासिक पद्धति का उपयोग किया जाना भी ज़रूरी है. हिमालय की विविधता और भाषाई-जातीय बहुलता को समझे बिना इतिहास लिखना असंभव है। न तो केवल भूगोल और पर्यावरण के आधार पर और न ही सिर्फ़ सामरिक दृष्टिकोण से। ज़रूरत है कि हम परिधि की बजाय परिप्रेक्ष्य बदलें — हिमालय को ‘हाशिए’ पर नहीं, इतिहास की धुरी पर रखें। कुछ समकालीन इतिहासकार और शोधकर्ता हिमालय को नए सिरे से पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
भारत का हिमालय सिर्फ़ सुरक्षा की दीवार या तीर्थाटन की भूमि नहीं है — यह इतिहास का जीवित कलेवर है। इसे सिर्फ़ संस्कृत ग्रंथों या उपनिवेशकालीन रिकॉर्ड्स से नहीं, बल्कि स्थानीय अभिलेखों, ताम्रपत्रों, गाँवों की कहानियों, लोकगीतों और लोक-परम्पराओं से पढ़ा जाना चाहिए। हिमालय वह जगह है, जहां भारत सिर्फ़ ऊपर को ही नहीं उठता जाता, बल्कि अपनी गहराइयों को भी पहचानता है।
इसी संदर्भ को ध्यान में रखते हुए आने वाली कड़ियों में उत्तराखंड के इतिहास पर चर्चा करने और कराने का इरादा है।