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पहाड़ में 15 अगस्त

15 अगस्त मेरे लिए हमेशा उत्साह और जोश-खरोश का दिन रहा है—भाषण देना, परेड देखना। वह उत्सव आज भी मेरे लिए वैसा ही है।

मेरे पास खुशी और दुःख, दोनों के कई कारण रहे हैं—जैसे किसी अजनबी बरसात की तरह, जो कभी छाया तो कभी धूप लेकर आती है। इस हालात को हम कहते हैं—स्याल का व्याह हो रहा है। आज वही पुराना जख्म लौटकर आ गया है, जिस पर मरहम लगाना मना है।

अब जब सारा पहाड़ दरक रहा है, आपदाएँ ही आपदाएँ हैं, तो समझ में नहीं आता कि 15 अगस्त कैसे मनाएँ। आनंद विलथेर की कविता याद आ रही है—

बहुत अपने
इतने अपने
कि बेचकर
खा गए
पहाड़ के
सारे सपने।

या फिर—माफियाओं का स्वर्ग:
जंगल माफियाओं की जन्नत,
भू-रेत माफियाओं की बहिश्त,
एनजीओ माफियाओं की अमरावती।

इन्हीं सारे बेतालों का अकूत बोझ ढोते-ढोते पहाड़ की जीवित ही सदगति हो रही है। रोना-सा आ रहा है। जुबिन नौटियाल का गीत—अबके न आऊँगा पहाड़, ईजा—डाडै-डाड आंसू बन बह रहा है पहाड़।

बचपन और किशोरावस्था के सारे 15 अगस्त मेरे मन में इकट्ठा हो गए हैं। तब वह मासूमियत भरे जोशीले नारे—“भारत माता की जय”, “वंदे मातरम्” और सुभाष का गीत—

कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा,
यह जिंदगी है कौम की, तू कौम पर लुटाए जा।

तब नन्हीं बाहें फड़कती थीं, सीने चौड़े हो जाते थे। तब वह फर्जी देशभक्ति नहीं थी, बल्कि अंदर तक आदमी होने का जज़्बा था—अनकंडीशंड देशभक्ति। तिरंगा यात्रा नहीं थी, पर जनगणमन बजते ही हम तपाक से खड़े हो जाते थे। अब वैचारिक प्रदूषण ने यह जोश खत्म कर दिया है।

अब देशभक्ति एक प्रमाणपत्र बनकर रह गई है—हमने मनाया कहकर सरकारी कर्मचारी उसे ले लेते हैं। अगर इतवार या छुट्टी के दिन 15 अगस्त या 26 जनवरी आ जाए, तो लोग उदास हो जाते हैं। आज़ादी के बाद देशभक्ति को जीने का एक लोकतांत्रिक दायित्व समझने की मानसिकता सही अंदाज में विकसित नहीं हो पाई—जैसे जापान में है।

पर्यावरण का बोध कहाँ!
महेश पुनैठा जी की कविता (पूरी याद नहीं) कमाल है—जिसमें कहा गया है कि जब मैंने पेड़ काटने पर रोक की बात की, तो लोग सड़क के पक्ष में हो गए।

ओह, गमसाली का 15 अगस्त याद आ रहा है।
गमसाली—चमोली जिले के भारत-तिब्बत सीमा का बार्डर, ग्यारह हज़ार फीट की ऊँचाई पर स्थित। वहाँ 15 अगस्त मनाने के लिए लोग मीलों दूर से पैदल आते थे। दुकानें सजतीं, स्कूल सजता, सब सजता।

बगल की फौजी चौकी में एक नए जवान ने एक गाँव वाले से पूछा—“क्या कोई मेला है?” गाँव वालों ने कहा—“15 अगस्त मेला है।” उस दिन लोग नई-नई पोशाक पहनकर, बालक-वृद्ध, नर-नारी, ठट् के ठट् झुंड बनाकर आते—दम्फू बजाते, गाते:

सुनो-सुनो जी गाना, तिब्बती समझाना,
‘मे’ को कहते आग, ‘मी’ को कहते आदमी…

और गीत—
हरकी होली चेली, परवकै सिलै पाणी लिजा।

पहली बार उस साढ़े दस हज़ार फीट ऊँचे खुले मंच पर मैंने ‘पृथ्वीराज की आँखें’ नाटक का मोनो-एक्ट किया। घाटी में गूंजते डायलॉग—

मत पूछो, कुछ मत पूछो उस क्षण को, उस निर्दयी क्षण को
जिसने पृथ्वीराज को पृथ्वीराज न रहने दिया…
शेर पिंजरे में बंद रहने पर भी शेर ही कहलाता है, महाराज…

फिर धनुष पर चढ़ा तीर, और गौरी का अंत। तालियों की गूंज…
वहाँ कोई चंद को नहीं जानता था, न गौरी को, न पृथ्वीराज को—पर एक भाव को जानता था—वीरता, त्याग और आदर्श आज़ादी के लिए जान देने का। वह मानवीय भाव ठंडी घाटी में जोश के साथ स्थापित हो गया। फौजी जवान खड़े होकर ताली बजा रहे थे, “भारत माता की जय” के नारों से आसमान फट रहा था।

बर्फीली हवाओं के बीच एक लड़का तालियों की गूंज में इस धरती को सींच रहा था, अंजानी आज़ादी के गौरव को याद कर रहा था।

फिर आया लैंसडाउन का वह खूबसूरत, तगड़ा लड़का—सुरेंद्र सिंह राणा। सर पर मफलर का फैंटा बाँधे, कमर में साल लपेटे गा रहा था—

ओ हो हो… खोया-खोया चाँद, खुला आसमान…

गीत की लय में पूरी वादी बह रही थी। फिर महिलाओं और पुरुषों का घूमता नाच—अंदर का नाच, प्रकृति के नाच में मिल गया।

एक जूनियर कमीशंड ऑफिसर ने मुझसे हाथ मिलाकर कहा—“मैंने 26 जनवरी की दिल्ली परेड में भी भाग लिया है, पर आज यहाँ जो जज़्बा देखा, उसका सौवां हिस्सा भी वहाँ नहीं था। वहाँ दिखावा है, यहाँ हकीकत है—एक खुली, ईमानदार खुशी।”

यह 15 अगस्त मेहनतकश जीवों के बीच की कभी-कभी आने वाली खुशी थी।
पर उसी दिन शाम को एक अलग घटना भी हुई—घर जाते समय संगीन लिए ड्यूटी कर रहे एक जवान से पिताजी ने कहा—“आप पर हमें गर्व है, देश के लिए इस ठंड में इतनी ऊँचाई पर ड्यूटी दे रहे हैं।” इस शाबाशी पर वह खुश होने के बजाय चिढ़कर अपने पेट को थपथपाते हुए बोला—“देशभक्ति नहीं साहब, पेटभक्ति… पेटभक्ति।”

गमसाली का 15 अगस्त देश में एक नज़ीर है—इस पर फिल्म भी है।

बहुत से शहीदों को आज के युवा नहीं जानते। भगत सिंह तो ‘ब्रांड’ बन गए हैं—हर राजनीतिक दल उन्हें अपना कहता है। पर काकोरी ट्रेन एक्शन के रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक़ उल्ला ख़ाँ, राजेंद्र लाहिड़ी, रोशन सिंह—ये क्रांतिकारी संगठन के संस्थापक सदस्य थे। फाँसी हुई, इन्हीं के रास्ते पर भगत सिंह चले।

तीन साल पहले अशफाक़ उल्ला ख़ाँ के भाई हल्द्वानी आए थे। मैंने उनसे अपनी डायरी में हस्ताक्षर लिए, तो लगा जैसे अशफाक दाज्यू से मिल रहा हूँ।

माफ करना दोस्तों, मैं बहक जल्दी जाता हूँ—तभी जिंदगी भर पहाड़ काटकर आज भावर हल्द्वानी में आशियाना बना बैठा हूँ।

आज “शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही निशाँ होगा”—यह पंक्ति तोते की तरह दोहराई जा रही है, पर शेर बिलख रहा है—

शहीदों ने आज़ादी दिलाई,
नेताओं ने मलाई खाई।

यही है जिंदगी का रेला-पेला—
किसी ने खेला, तो किसी ने झेला।